अगर आप एक शिक्षक है या शिक्षक बनने की सोच रहे है तो आप शिक्षण को प्रभावी किस प्रकार से बनायेंगे आज इस पोस्ट में हम इसी टॉपिक पर बताएँगे-की प्रभावी शिक्षण के लिए शिक्षक को क्या करना चाहिए...
शिक्षण को प्रभावी बनाने के तरीके (ways to make teaching effective)
प्रभावी शिक्षण की अवधारणा एवं विकास (Concept and Development of Teaching-Effectiveness)-
शिक्षण की प्रभावशीलता अधिक वृहद प्रत्यय है, इसकी परिभाषा करना कठिन है क्योंकि शिक्षण एक सामाजिक प्रत्यय है। और शिक्षक प्रभावशीलता एक सापेक्षिक प्रत्यय है। शिक्षक प्रभावशीलता का प्रमुख घटक शिक्षण-प्रभावशीलता माना जाता है। शिक्षण- प्रभावशीलता से तात्पर्य शिक्षण-ौशल से है कि शिक्षक अपने अध्ययन में शिक्षण-कौशलों का विकास कितनी सफलता से करता है। शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अनेक शाब्दिक एवं अशाछिब्दक क्रियाएँ सन्निहित हैं। इन्हें ही शिक्षण-कौशलों (Teaching-Skills) की संज्ञा दी गई है। शिक्षण-कौशल शिक्षक के शिक्ष-व्यवहार के रूप में प्रकट होता है।
शिक्षण क्या है What is teaching-
शिक्षण को 'कला' (Art) तथा 'विज्ञान' (Science) दोनों माना जाता है। जब शिक्षण को एक 'कला' के रूप में समझने का प्रयास करते हैं, तब यह अवधारणा होती है कि प्रभावशाली शिक्षक जन्मजात होते हैं। और उनके विशिष्ट शिक्षण-कौशल होते हैं। एक प्रभावशाली शिक्षण में विशेष शिक्षण-कौशलों का समावेश होता है, एक अच्छा शिक्षक उन्हें अपने कक्षा-शिक्षण में उपयोग करता है।
जब शिक्षण को एक विज्ञान के रूप में समझने का प्रयास करते हैं, तब वह अवधारणा होती है कि अच्छे शिक्षक प्रशिक्षण द्वारा तैयार किए जा सकते हैं और उनमें विशिष्ट शिक्षण-कौशलों का विकास किया जा सकता है। अतः एक प्रशिक्षण-अध्यापक के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह शिक्षण-कौशल के अर्थ को समझे और अच्छे 'शिक्षण-कौशलों' को पहिचान सके। अपने विषय के शिक्षण के लिए किन कौशलों की आवश्यकता होती है उनकी पहिचान करना प्राथमिक आवश्यकता है तथा प्रभावशाली शिक्षण कराने हेतु दक्षता व क्षमता विकसित करा सके। अतः शिक्षण कला और विज्ञान का समन्वित रूप है।
शिक्षण को प्रभावी बनाने के तरीके
कक्षा में शिक्षक शिक्षण को प्रभावी बनाने हेतु अद्यतन प्रविधि एवं शिक्षण-व्यूहरचना का उपयोग करता है। बहुधा देखा भी गया है कि विद्यालयों में अप्रशिक्षित शिक्षक एक प्रशिक्षित अध्यापक से अच्छे स्तर का शिक्षण कराने में समक्ष हो जाता है। micro skills in teaching
इसका कारण स्पष्ट है कि वह प्रभावी शिक्षण की प्रविधि में दक्षता रखता है। यही दक्षता शिक्षण-कौशल कहलायी जा सकती है। शिक्षार्थी सहजता से पाठ्यवस्तु को अधिगम कर आत्मसात् कर सकें, इसके लिए शिक्षक को पाठ नियोजन करना अधिक उपयुक्त होता है। ताकि शिक्षक पाठ्यवस्तु पर अधिकार करके कक्षा में समयानुसार शिक्षण-कौशलों का
अधिकाधिक उपयोग कर अपने शिक्षण को प्रभावी बना सकेगा।
शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए शिक्षक को कक्षा-शिक्षण के समय पाठयोजना में निर्धारित क्रियाकलापों के अतिरिक्त शिक्षण-परिस्थितियों के अनुसार भी तुरन्त परिवर्तन हेतु निर्णय लेने पड़ते हैं। स्पष्टतः जो शिक्षक इन अपेक्षित परिवर्तनों को शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं, जिज्ञासाओं, आकांक्षाओं एवं अपेक्षाओं को देखते हुए उचित प्रकार से कर लेता है, प्रभावी शिक्षण कार्य कर शिक्षार्थियों में लोकप्रिय हो जाता है।
आजकल विद्यालयों/महाविद्यालयों में "सूक्ष्म-शिक्षण' (Micro-Teaching) के अन्तर्गत प्रशिक्षणार्थियों को विभिन्न शिक्षण-कौशलों (Teaching-Skills) का व्यावहारिक रूप में अभ्यास एवं विकास कराया जाता है ताकि एक प्रभावशाली शिक्षण' कराने हेतु वे उनके प्रयोग करने में अभ्यस्थ (habit formation) हो जाएं। उनके व्यवहारों में वांछित
परिवर्तन परिमार्जन किया जाता है।
सूक्ष्म-शिक्षण से विशिष्ट शिक्षण-कौशलों का विकास करने के लिए वास्तविक कक्षा की जटिलता दूर करके शिक्षण के कार्य को 'लघु रूप' में सम्पन्न कराया जाता है।
विदित है कि शिक्षण का उद्देश्य उचित अधिगम-अनुभव (Learning-Experience) करवाकर अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन लाना है। इस प्रकार शिक्षण में प्रभावशीलता लाने के लिए शिक्षक को परम्परागत शिक्षा-शिक्षण प्रणाली के स्थान पर शैक्षिक नवाचारों (Educational Innovations) का उपयोग करना अत्यावश्यक व अपरिहार्य हो गया है।
अतः शिक्षण-प्रभावकता से अभिप्राय होगा कि छात्र के अधिगम की प्रक्रिया को किस प्रकार प्रभावशाली बनाए जाए? जिससे वह अधिकाधिक अनुभव/अधिगम अर्जित कर उन्हें अपने व्यवहार में परिलक्षित कर सके। शिक्षण-प्रक्रिया में शिक्षक छात्र को सूचना प्रदान करने के लिए विभिन्न प्रविधियों का उचित समय पर प्रयोग कर उसे प्रभावी बनाता है।
एक सफल शिक्षण-प्रक्रिया वही कहलाएगी जिससे प्रत्यक्ष रूप से शिक्षार्थी के व्यवहार में परिवर्तन प्रगटीकरण हो सके, अन्यथा वांछित अधिगम के बिना शिक्षण का कोई औचित्य नहीं होगा।
प्रभावी शिक्षण के घटक/तत्त्व
शिक्षण एक जटिल प्रक्रिया है। एक आदर्श शिक्षक का दायित्व है कि वह कक्षा-शिक्षण के समय शिक्षण-प्रक्रिया को प्रभावकारी बनाए रखने का प्रयासरत रहे। शिक्षण- प्रभावकता हेतु शैक्षिक नवाचारों, प्रविधि/विधि, शिक्षण-पद्धतियों का निर्माण कर इनके माध्यम से जटिल शिक्षण-प्रक्रिया को सरलतम बनाया जा सकता है। स्पष्टतः शिक्षण-प्रभावकता को अनेक घटक प्रभावित करते हैं। अतएव शिक्षण को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित तत्व/घटक हैं-
(1) शिक्षक-शिक्षार्थी अन्तःक्रिया-शिक्षण शिक्षक तथा विद्यार्थी के मध्य होने वाली एक प्रक्रिया है। शिक्षक व विद्यार्थियों द्वारा प्रत्यक्ष उपस्थिति में परस्पर अन्तःक्रिया (Interaction) से विचार-विनिमय होता है। परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करने से शिक्षक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं यथा-मनोवृत्ति अभिरूचि, अभियोग्यता से परिचित होता है तथा छात्रों को तद्नुरूप शिक्षण उपलब्ध करवाता है जिससे छात्रों का अधिगम-अनुभव प्रभावित होता है और शिक्षण अवश्य ही प्रभावशाली बन जाता है। अतः शिक्षण-प्रभावकता अन्त:क्रिया पर आश्रित है।
(2) सामाजिक वातावरण-शिक्षण और समाज एक दूसरे के लिए पूरक हैं।
सामाजिक वातावरण शिक्षण को प्रभावित करता है। यदि सामाजिक वातावरण, परम्पराएँ, भाईचारा, सहयोग, परोपकार, सद्भावना आदि गुणों से युक्त होगा, तो छात्र में ये गुण अपना प्रभुत्व कायम करने में समक्ष होंगे। तथा शिक्षण-प्रक्रिया भी इसी वातावरण के अनुसार क्रियान्वित की जाएगी। अपेक्षित सामाजिक वातावरण के कारण विद्यार्थी विषयवस्तु पर ध्यान
केन्द्रित कर अधिकाधिक अधिगम अर्जित कर लेता है जिससे शिक्षण-प्रक्रिया प्रभावी हो जाती है।
(3) शिक्षक-व्यवहार-शिक्षक छात्र का आदर्श होता है। बालक/छात्र में अनुसरण की प्रवृत्ति जन्मजात होती है। छात्र अपने आदर्श (शिक्षक) का अनुकरण करके उस जैसा ही बनना चाहता है। छात्र उसके व्यवहार से प्रेरित होकर अधिगम करने में तत्पर होगा। अत: शिक्षक यदि निष्पक्ष न्यायकारी, छात्रों की मनोवृत्ति समझने वाला, कर्त्तव्यपरायण, सहानुभूतिपूर्ण, सद्भावनायुक्त व्यवहार करने वाला है, तो इससे प्रभावी शिक्षण होगा। शिक्षक के निष्पक्ष दृष्टिकोण से शिक्षण-प्रक्रिया में वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है। इससे छात्र की अधिगम-प्रक्रिया प्रभावित होगी। परिणामस्वरूप शिक्षण में प्रभावशीलता आएगी।
(4) पारिवारिक एवं विद्यालयी वातावरण-बालक के परिवार के वातावरण का उसकी मानसिकता पर प्रभाव पड़ता है। परिवार के प्रतिकूल वातावरण से बालक में मानसिक संवेगात्मक अस्थिरता, स्वाभाव में चिड़चिड़ापन, हीन भावना, अवांछित आदतों का होना आदि से वह कक्षा-शिक्षण में रुचि नहीं लेगा। जिससे उसका अधिगम प्रभावित होगा। साथ ही विद्यालयी वातावरण के भौतिक व मानवीय संसाधन भी उसके अधिगम को प्रभावित करते हैं।
(5) छात्र का बौद्धिक स्तर-छात्र का बौद्धिक स्तर शिक्षण-प्रक्रिया को प्रभावित करता है। पाठ्यवस्तु बालक की बौद्धिक क्षमता के अनुरूप नहीं होने की स्थिति में उसकी अनुक्रिया भी अपेक्षित नहीं मिल पाएगी। अतः प्रभावी शिक्षण के लिए आवश्यक है कि छात्र के बौद्धिक स्तर को ज्ञात करके उसे अनुकूल विषय-वस्तु सम्प्रेषित की जाए।
(6) शिक्षण उद्देश्यों का निर्धारण-यदि शिक्षक शिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण कक्षा-शिक्षण से पूर्व कर लेता है, तो वह उद्देश्यों के अनुरूप अधिगम कराने हेतु तत्पर हो जाएगा जिसके फलस्वरूप छात्र भी सहभागिता एवं क्रियाशीलता से अधिकतम अधिगम करने में सक्षम हो जाता है। अत: शिक्षण का प्रभावशाली उद्देश्य निर्धारित करके उचित विधि/प्रविधि
को सुनिश्चितता से शिक्षण की प्रभावकता कायम की जा सकती है।
(7) नियोजन-शिक्षण कार्य करने से पहले शिक्षक शिक्षण-सामग्री को व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध रूप में तथा दैनिक पाठ योजना, नियोजित कर लेनी चाहिए। नियोजन करने से शिक्षण-प्रक्रिया में तार्किकता आती है और प्रभावशाली अधिगम अर्जित हो जाता है। इस प्रकार शिक्षण-प्रक्रिया में प्रभावशीलता बन पाएगी।
(8) शिक्षण-सूत्र, सिद्धान्त व सोपान-शिक्षण-प्रक्रिया तभी प्रभावशाली बन पाएगी जब शिक्षण-सूत्र, सिद्धान्त और सोपानों पर आधारित होगी। शिक्षण सिद्धान्तों के अनुरूप कराया गया शिक्षण नियमों में आबद्ध/तारतम्य रहता है। सूत्रों में आबद्ध विषय-वस्तु प्रदान करने से छात्र क्रमबद्ध ज्ञान अर्जित कर पाते हैं तथा शिक्षण-प्रक्रिया वास्तव में प्रभुत्व स्थापित कर सकती है। सोपानों के माध्यम से शिक्षण सामग्री को क्रमबद्ध/तारतम्य रूप में प्रस्तुत करके शिक्षण को प्रभावशाली बना सकते हैं। अतः शिक्षण-प्रभावकता में सिद्धान्त, सूत्र तथा सोपानों का विशेष योगदान रहा है।
(9) विषय-वस्तु (पाठ्यांश)-विदित है कि कक्षा-शिक्षण के समय शिक्षक और छात्र के मध्य विचारों, सूचना के सम्प्रेषण का माध्यम विषय-वस्तु (पाठ्यक्रम) होती है।
इस प्रकार शिक्षण की प्रभावी प्रक्रिया के लिए पाठ्यवस्तु महत्त्वपूर्ण तत्व है। अत: पाठ्यवस्तु शिक्षण-सूत्र व सिद्धान्तों के अनुसार व्यवस्थित क्रम में होगी तथा छात्र की रूचि और योग्यता के अनुरूप होगी, तो शिक्षण में निश्चित रूप से प्रभावशीलता आएगी।
(10) छात्र की आवश्यकताएँ-छात्र की जिज्ञासा, इच्छा/रुचि जागृत करने तथा अपने शिक्षण-अधिगम को प्रभावशाली बनाने हेतु शिक्षकों को उसकी आवश्यकताओं को ध्यान रहना अपेक्षित है।
(11) शिक्षण-अधिगम सामग्री (टी.एल.एम.)-शिक्षण कराते समय विषय- वस्तु के कुछ सम्प्रत्यय मौखिक रूप से स्पष्ट नहीं कराए जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में चित्र, मॉडल (प्रतिरूप), मानचित्र, कम्प्यूटर, प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर आदि शिक्षण-अधिगम सामग्री के रूप में सहायक होते हैं ताकि शिक्षण में प्रवाहता बनायी जा सके।
( 12 ) निदान तथा उपचार-शिक्षण-प्रक्रिया में छात्र कई बार ध्यान अपकेन्द्रित कर होता है जिससे शिक्षण की प्रभावशीलता बनी रहती है। लेता है। ऐसी स्थिति में उसकी कमजोरियों का निदान करके उपचार करने से वह सक्रिय
(13) सम्प्रेषण माध्यम-शिक्षक और छात्र के मध्य अन्त:क्रिया के कारण किए जाने वाले शिक्षण की प्रभावकता सम्प्रेषण माध्यम पर निर्भर करती है। शिक्षक अपने शिक्षण तथा छात्र के अधिगम-अनुभवों को प्रभावशाली बनाने हेतु भाषण-पद्धति, प्रयोगात्मक प्रणाली, टेपरिकार्डर, फिल्म-स्ट्रिप्स, प्रोजेक्टर, कम्प्यूटर, वीडियो कैसेट आदि के माध्यमसे विषय-सामग्री प्रस्तुत कर सकता है।
(15) मूल्यांकन-मूल्यांकन प्रक्रिया भी शिक्षण को प्रभावित करने वाले तत्त्वों में महत्त्वपूर्ण है। शिक्षण उद्देश्यों, शिक्षण-प्रक्रिया, अधिगम-अनुभव व्यवहारगत परिवर्तन आदि का मूल्यांकन करके शिक्षण के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की सम्प्राप्ति' की सीमा से अवगत होकर उसमें अपेक्षित सुधार किया जा सकता है।
प्रभावी शिक्षण की विधियाँ-(Methods of Teaching-Effectiveness)
शिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है। शिक्षा का बालक के जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध है। व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त शिक्षा प्राप्त करता रहता है। शिक्षा प्रदान करने का कार्य शिक्षण-प्रक्रिया के द्वारा सम्पन्न होता है। शिक्षण-प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है। शिक्षण के उद्देश्य बालक को समुचित ज्ञान प्रदान करना होता है। अधिगम से ज्ञान से वृद्धि होती है जो उसके व्यवहार में परिवर्तन से परिलक्षित होती रहती है। अनेक विधि/प्रविधियों से शिक्षण को सशक्त और प्रभावी बना जा सकता है। प्रभावी शिक्षण की विधियाँ निम्नलिखित हैं- micro skills in teaching
(1) सूक्ष्म-शिक्षण विधि (Micro-Teaching Method),
(2) अन्तः क्रिया विश्लेषण विधि (Interaction Analysis Method).
(3) अनुरूपीकृत शिक्षण-विधि (Simulated Teaching Method)
micro skills in teaching
(1) सूक्ष्म-शिक्षण विधि-सूक्ष्म (Micro-Teaching Method) :
सूक्ष्म-शिक्षण शिक्षण-प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने की एक सशक्त प्रविधि है। शिक्षक को शिक्षण-कौशलों में दक्षता प्राप्त कराने तथा मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित शिक्षण- प्रशिक्षण हेतु एक विशिष्ट विधि है। सूक्ष्म-शिक्षण में छात्राध्यापक/प्रशिक्षणार्थी द्वारा अपने साथियों (छात्रों) को पढ़ाना होता है जिसमें एक बार में एक ही शिक्षण-कौशल का विकास किया जाता है। छोटे पाठ्यांश (प्रकरण) पर आधारित दैनिक पाठ योजना का निर्माण कक्षा शिक्षण से पूर्व करना पड़ता है। अगले दिन छोटे पाठ्यांश (अमुक शिक्षण-कौशल पर आधारित) को पूर्व नियोजित करके कक्षा में 5-7 छात्रों (छात्राध्यापकों) को 5-10 मिनट की अवधि में पढ़ाना पड़ता है। इस प्रकार प्रशिक्षणार्थियों को प्रशिक्षण काल में सूक्ष्म-शिक्षण द्वारा प्रशिक्षित कर भावी वास्तविक शिक्षण-प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने हेतु तैयार किया जाता है।
(2) अन्तःक्रिया विश्लेषण विधि (Interoction Analysis Method) :
अन्त:क्रिया विश्लेषण विधि शिक्षण को प्रभावी बनाने तथा छात्र-शिक्षक के मध्य तीव्र अन्तःक्रिया हेतु प्रयुक्त की जाती है, इस विधि को महान् मनोवैज्ञानिक नैड ए. फ्लैण्डर ने विकसित किया। इसे अन्त:क्रिया शिक्षण-प्रक्रिया प्रतिमान (Model) भी कहा गया।
अन्त:क्रिया विश्लेषण में फ्लैण्डर (Flender) ने शिक्षक और छात्र के मध्य का व्यवहार माना है। यह सीखने-सिखाने को मनोवैज्ञानिक विधि है। इसमें शाब्दिक (भाषायी) एवं अशाब्दिक (हाव-भाव) अन्त:क्रिया सम्पन्न होती है। शाब्दिक क्रिया अशाब्दिक की अपेक्षा अधिक प्रभावी होती है। इसमें शिक्षक और छात्र के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष व्यवहार का मूल्यांकन
किया जाना सम्भव है। micro skills in teaching
( 3 ) Simulated Teaching Method) :
उल्लेखनीय है कि शिक्षण की जटिल प्रक्रिया का सरल तथा प्रभावशाली बनाने हेतु मनोविज्ञान ने विभिन्न विधि/प्रविधियों को विकसित किया गया है। परम्परागत प्रणाली में मात्र बौद्धिक स्तर का ही ध्यान रखा जाता था। आज वहीं छात्र के सर्वांगीण विकास को महत्व दिया जा रहा है। अनुरुपीकृत प्रविधि का भी निर्माण इसी निमित्त किया गया कि शिक्षण-
विधि प्रभावशाली बन सके, जिससे छात्र सहज अधिगम करके अपने व्यवहार में परिवर्तन (ज्ञान में वृद्धि) लाने में सक्षम हो सके। micro skills in teaching
अनुरुपीकृत शिक्षण विधि में प्रशिक्षणार्थियों को प्रशिक्षण प्रदान करके उन्हें कुशल व्यावहारिक शिक्षक बनाने का अभ्यास किया जाता है तथा अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन लाया जाता है। वास्तविक शिक्षण से पूर्व कृत्रिम परिस्थितियों में अभ्यास करने की यह उपयुक्त विधि है। सूक्ष्म-शिक्षण की भाँति प्रशिक्षणार्थी स्वयं ही शिक्षक तथा छात्र बनते हैं। इस प्रकार इसमें भी छात्राध्यापक को दोनों भूमिकाओं का निर्वहन करना पड़ता है। प्रशिक्षणार्थो, उचित विधि/प्रविधि के माध्यम से शिक्षण प्रभावी बनाने में सफल होता है। समूह के सभी प्रशिक्षणार्थी अपना अभ्यास कर लेने के पश्चात् प्रकरण पर सामूहिक परिचर्चा (Group Discussion) करते हैं। इससे एक-दूसरे के गुण-दोषों का खुले मस्तिष्क (Open-minded) विचार-विनिमय करते हैं। वाद-विवाद के माध्यम से उनकी चिन्तन-तर्क करने की शक्ति भी परिवर्धित होती है। साथ ही परस्पर 'पृष्ठ-पोषण' (Feed-back) मिलता है।
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